Saturday 30 November 2013

सर से पा तक

सर से पा तक वो गुलाबों का शजर लगता है 
बावज़ू हो के भी छूते हुए डर लगता है

मैं तिरे साथ सितारों से गुज़र सकता हूँ 
कितना आसान मोहब्बत का सफ़र लगता है 

मुझमें रहता है कोई दुश्मन-ए-जानी मेरा 
ख़ुद से तन्हाई में मिलते हुए डर लगता है 

बुत भी रक्खे हैं नमाज़ें भी अदा होती है 
दिल मिरा दिल नहीं अल्लाह का घर लगता है 

ज़िंदगी तूने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीन 
पाँव फैलाऊं तो दीवार से सर लगता है
-बशीर बद्र

हमारा दिल

हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए
चराग़ों की तरह आँखें जलें, जब शाम हो जाए

मैं ख़ुद भी एहतियातन, उस गली से कम गुजरता हूँ
कोई मासूम क्यों मेरे लिए, बदनाम हो जाए

अजब हालात थे, यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर
मुहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाए

समन्दर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमको
हवायें तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाए 

मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहाँ होगा
परिंदा आस्माँ छूने में जब नाकाम हो जाए 

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में, ज़िंदगी की शाम हो जाए
-बशीर बद्र

मैं कब कहता हूँ

मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है
खुदा इस शहर को महफ़ूज़ रखे
ये बच्चो की तरह हँसता बहुत है
मैं हर लम्हे मे सदियाँ देखता हूँ
तुम्हारे साथ एक लम्हा बहुत है
मेरा दिल बारिशों मे फूल जैसा
ये बच्चा रात मे रोता बहुत है
वो अब लाखों दिलो से खेलता है
मुझे पहचान ले, इतना बहुत है
-बशीर बद्र

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी,
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता।

तुम मेरी ज़िन्दगी हो, ये सच है,
ज़िन्दगी का मगर भरोसा क्या।

जी बहुत चाहता है सच बोलें,
क्या करें हौसला नहीं होता।

वो चाँदनी का बदन खुशबुओं का साया है,
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है।

तुम अभी शहर में क्या नए आए हो,
रुक गए राह में हादसा देख कर।

वो इत्रदान सा लहज़ा मेरे बुजुर्गों का,
रची बसी हुई उर्दू ज़बान की ख़ुशबू। 
-बशीर बद्र

अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो

अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो 
हम लोग जब मिले तो कोई दूसरा भी हो 

तू जानता नहीं मेरी चाहत अजीब है 
मुझको मना रहा हैं कभी ख़ुद खफ़ा भी हो 

तू बेवफ़ा नहीं है मगर बेवफ़ाई कर 
उसकी नज़र में रहने का कुछ सिलसिला भी हो 

पतझड़ के टूटते हुए पत्तों के साथ-साथ 
मौसम कभी तो बदलेगा ये आसरा भी हो 

चुपचाप उसको बैठ के देखूँ तमाम रात 
जागा हुआ भी हो कोई सोया हुआ भी हो 

उसके लिए तो मैंने यहाँ तक दुआएँ कीं 
मेरी तरह से कोई उसे चाहता भी हो 

इतरी सियाह रात में किसको सदाएँ दूँ
ऐसा चिराग़ दे जो कभी बोलता भी हो
-बशीर बद्र

अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया

अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया 
जिसको गले लगा लिया वो दूर हो गया 

कागज में दब के मर गए कीड़े किताब के 
दीवाना बे पढ़े-लिखे मशहूर हो गया 

महलों में हमने कितने सितारे सजा दिये
लेकिन ज़मीं से चाँद बहुत दूर हो गया 

तन्हाइयों ने तोड़ दी हम दोनों की अना 
आईना बात करने पे मज़बूर हो गया 

सुब्हे-विसाल पूछ रही है अज़ब सवाल
वो पास आ गया कि बहुत दूर हो गया 

कुछ फल जरूर आयेंगे रोटी के पेड़ में 
जिस दिन तेरा मतालबा मंज़ूर हो गया
- बशीर बद्र

होंठों पे मुहब्बत के फ़साने नहीं आते

होंठों पे मुहब्बत के फ़साने नहीं आते
साहिल पे समुंदर के ख़ज़ाने नहीं आते

पलकें भी चमक उठती हैं सोते में हमारी
आँखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते

दिल उजड़ी हुई इक सराय की तरह है
अब लोग यहाँ रात बिताने नहीं आते

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते

इस शहर के बादल तेरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं
ये आग लगाते हैं बुझाने नहीं आते

क्या सोचकर आए हो मोहब्बत की गली में 
जब नाज़ हसीनों के उठाने नहीं आते 

अहबाब भी ग़ैरों की अदा सीख गये हैं
आते हैं मगर दिल को दुखाने नहीं आते
-बशीर बद्र

अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जायेगा

अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जायेगा
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझे चाहेगा

तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा
मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लायेगा

ना जाने कब तेरे दिल पर नई सी दस्तक हो
मकान ख़ाली हुआ है तो कोई आयेगा

मैं अपनी राह में दीवार बन के बैठा हूँ
अगर वो आया तो किस रास्ते से आयेगा

तुम्हारे साथ ये मौसम फ़रिश्तों जैसा है
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सतायेगा
-बशीर बद्र, 

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा । 
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा ।

हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है, 
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा । 

कितना सच्चाई से, मुझसे ज़िंदगी ने कह दिया, 
तू नहीं मेरा तो कोई, दूसरा हो जाएगा । 

मैं ख़ुदा का नाम लेकर, पी रहा हूँ दोस्तो, 
ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जाएगा । 

सब उसी के हैं, हवा, ख़ुश्बू, ज़मीनो-आस्माँ, 
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जाएगा ।

रूठ जाना तो मोहब्बत की अलामत है मगर.
क्या खबर थी मुझसे वो इतना खफा हो जायेगा.
-

बशीर बद्र

क्‍यों डरें ज़िन्‍दगी में क्‍या होगा

क्‍यों डरें ज़िन्‍दगी में क्‍या होगा
कुछ ना होगा तो तज़रूबा होगा

हँसती आँखों में झाँक कर देखो
कोई आँसू कहीं छुपा होगा

इन दिनों ना-उम्‍मीद सा हूँ मैं
शायद उसने भी ये सुना होगा

देखकर तुमको सोचता हूँ मैं
क्‍या किसी ने तुम्‍हें छुआ होगा

-जावेद अख़्तर

जाते जाते वो मुझे

जाते जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया 
उम्र भर दोहराऊँगा ऐसी कहानी दे गया 

उससे मैं कुछ पा सकूँ ऐसी कहाँ उम्मीद थी 
ग़म भी वो शायद बरा-ए-मेहरबानी दे गया 

सब हवायें ले गया मेरे समंदर की कोई 
और मुझ को एक कश्ती बादबानी दे गया 

ख़ैर मैं प्यासा रहा पर उस ने इतना तो किया 
मेरी पलकों की कतारों को वो पानी दे गया
-

जावेद अख़्तर

यही हालात इब्तदा से रहे

यही हालात इब्तदा से रहे
लोग हमसे ख़फ़ा-ख़फ़ा-से रहे

बेवफ़ा तुम कभी न थे लेकिन
ये भी सच है कि बेवफ़ा-से रहे

इन चिराग़ों में तेल ही कम था
क्यों गिला फिर हमें हवा से रहे

बहस, शतरंज, शेर, मौसीक़ी
तुम नहीं रहे तो ये दिलासे रहे

उसके बंदों को देखकर कहिये
हमको उम्मीद क्या ख़ुदा से रहे

ज़िन्दगी की शराब माँगते हो
हमको देखो कि पी के प्यासे रहे
- जावेद अख़्तर

जिसे दुश्मन समझता हूँ वही अपना निकलता है

जिसे दुश्मन समझता हूँ वही अपना निकलता है
हर एक पत्थर से मेरे सर का कुछ रिश्ता निकलता है

डरा -धमका के तुम हमसे वफ़ा करने को कहते हो
कहीं तलवार से भी पाँव का काँटा निकलता है?

ज़रा-सा झुटपुटा होते ही छुप जाता है सूरज भी
मगर इक चाँद है जो शब में भी तन्हा निकलता है

किसी के पास आते हैं तो दरिया सूख जाते हैं
किसी की एड़ियों से रेत में चश्मा निकलता है

फ़ज़ा में घोल दीं हैं नफ़रतें अहले-सियासत ने
मगर पानी कुएँ से आज तक मीठा निकलता है

जिसे भी जुर्मे-ग़द्दारी में तुम सब क़त्ल करते हो
उसी की जेब से क्यों मुल्क का झंडा निकलता है

दुआएँ माँ की पहुँचाने को मीलों-मील आती हैं
कि जब परदेस जाने के लिए बेटा निकलता है.

-

मुनव्वर राना

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे
वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है

बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है 

-

ग़ालिब

लोग टूट जाते हैं

लोग टूट जाते हैं, एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते, बस्तियाँ जलाने में

और जाम टूटेंगे, इस शराबख़ाने में
मौसमों के आने में, मौसमों के जाने में

हर धड़कते पत्थर को, लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है, दिल को दिल बनाने में

फ़ाख़्ता की मजबूरी ,ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रखता है, उसके आशियाने में

दूसरी कोई लड़की, ज़िंदगी में आएगी
कितनी देर लगती है, उसको भूल जाने में

-बशीर बद्र

तुम्हारी कब्र पर

तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातेहा पढ़ने नही आया,
मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था ।
मेरी आँखे
तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ
वो, वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी ।
कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,
मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं,
तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं |
बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम |
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
तुम्हारी कब्र में मैं दफन तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फातहा पढनें चले आना |

-निदा फ़ाज़ली

ये चिराग़ बेनज़र है ये सितारा बेज़ुबाँ है

ये चिराग़ बेनज़र है ये सितारा बेज़ुबाँ है
अभी तुझसे मिलता जुलता कोई दूसरा कहाँ है

वही शख़्स जिसपे अपने दिल-ओ-जाँ निसार कर दूँ
वो अगर ख़फ़ा नहीं है तो ज़रूर बदगुमाँ है

कभी पा के तुझको खोना कभी खो के तुझको पाना
ये जनम जनम का रिश्ता तेरे मेरे दरमियाँ है

मेरे साथ चलनेवाले तुझे क्या मिला सफ़र में
वही दुख भरी ज़मीं है वही ग़म का आस्माँ है

मैं इसी गुमाँ में बरसों बड़ा मुत्मईन रहा हूँ
तेरा जिस्म बेतग़ैय्युर है मेरा प्यार जाविदाँ है

उन्हीं रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे
मुझे रोक रोक पूछा तेरा हमसफ़र कहाँ है

-बशीर बद्र


मुहब्बत में वफ़ादारी से बचिये

मुहब्बत में वफ़ादारी से बचिये 
जहाँ तक हो अदाकारी से बचिये 

हर एक सूरत भली लगती है कुछ दिन 
लहू की शोबदाकारी से बचिये 

शराफ़त आदमियत दर्द-मन्दी 
बड़े शहरों में बीमारी से बचिये 

ज़रूरी क्या हर एक महफ़िल में आना 
तक़ल्लुफ़ की रवादारी से बचिये 

बिना पैरों के सर चलते नहीं हैं 
बुज़ुर्गों की समझदारी से बचिये

-निदा फ़ाज़ली

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आस्माँ नहीं मिलता
बुझा सका ह भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता
कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता
चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

- निदा फ़ाज़ली

मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं

मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
हाये मौसम की तरह दोस्त बदल जाते हैं

हम अभी तक हैं गिरफ़्तार-ए-मुहब्बत यारो
ठोकरें खा के सुना था कि सम्भल जाते हैं

ये कभी अपनी जफ़ा पर न हुआ शर्मिन्दा
हम समझते रहे पत्थर भी पिघल जाते हैं

उम्र भर जिनकी वफ़ाओं पे भरोसा कीजे
वक़्त पड़ने पे वही लोग बदल जाते हैं

-बशीर बद्र

सौ ख़ुलूस बातों में सब करम ख़यालों में

सौ ख़ुलूस बातों में सब करम ख़यालों में
बस ज़रा वफ़ा कम है तेरे शहर वालों में

पहली बार नज़रों ने चाँद बोलते देखा
हम जवाब क्या देते खो गये सवालों में

रात तेरी यादों ने दिल को इस तरह छेड़ा
जैसे कोई चुटकी ले नर्म नर्म गालों में

मेरी आँख के तारे अब न देख पाओगे
रात के मुसाफ़िर थे खो गये उजालों में

-बशीर बद्र

आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा / Aankhon mein rahaa dil mein utarkar nahin dekha

आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
किश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा
बेवक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
जिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं
तुमने मिरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा
क़ातिल के तरफ़दार का कहना है कि उसने
मक़तूल की गर्दन पे कभी सर नहीं देखा

-

 बशीर बद्र

Aankhon mein rahaa dil mein utarkar nahin dekha
Kishti ke musafir ne samandar nahin dekha

Bewaqt agar jaunga sab chonk padenge
Ik umr hui din mein kabhi ghar nahin dekha

jis din se chala hun miri manzil pe nazar hai
Aankon ne kabhi meel ka patthar nahin dekha

Ye phool mujhe koi wirasat mein mile hein
Tumne mira kanton bhara bistar nahin dekha

Patthar mujhe kahta hai mira chahne wala
Main mom hun usne mujhe chhookar nahin dekha

katil k tarafdar ka kehna haiki usne
maqtool ki gardan pe kabhi sar nahi dekha 
-
bashir badr

न जी भर के देखा न कुछ बात की / Na jee bhar ke dekha na kuch baat ki

न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की

कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की

उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनाई ख़यालात की

मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की

सितारों को शायद ख़बर ही नहीं
मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की

मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब का
बरसती हुई रात बरसात की

-

बशीर बद्र

Na jee bhar ke dekha na kuch baat ki
bari arzoo thi mulaqat ki

kai saal se kuch khabar nahi 
kahan din guzra kahan raat ki

ujaalon ki pariyan nahanay lagi
naddi gungunai khayalat ki

mein chup tha to chalti hawa ruk gai
zaba'n sab samajhte hai'n jazbat ki

sitaron ko shayad khabar hi nai
Musafir ne janay kaha raat ki

muqadar meri chash'm pur aa'b ka
barasti hoi raat barsaat ki
-
bashir badr