Saturday 30 November 2013

अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो

अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो 
हम लोग जब मिले तो कोई दूसरा भी हो 

तू जानता नहीं मेरी चाहत अजीब है 
मुझको मना रहा हैं कभी ख़ुद खफ़ा भी हो 

तू बेवफ़ा नहीं है मगर बेवफ़ाई कर 
उसकी नज़र में रहने का कुछ सिलसिला भी हो 

पतझड़ के टूटते हुए पत्तों के साथ-साथ 
मौसम कभी तो बदलेगा ये आसरा भी हो 

चुपचाप उसको बैठ के देखूँ तमाम रात 
जागा हुआ भी हो कोई सोया हुआ भी हो 

उसके लिए तो मैंने यहाँ तक दुआएँ कीं 
मेरी तरह से कोई उसे चाहता भी हो 

इतरी सियाह रात में किसको सदाएँ दूँ
ऐसा चिराग़ दे जो कभी बोलता भी हो
-बशीर बद्र

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