Friday 27 December 2013

सफ़र की हद है वहाँ तक के कुछ निशान रहे

सफ़र की हद है वहाँ तक कि कुछ निशान रहे|
चले चलो के जहाँ तक ये आसमान रहे|

ये क्या उठाये क़दम और आ गई मन्ज़िल,
मज़ा तो जब है के पैरों में कुछ थकान रहे|

वो शख़्स मुझ को कोई जालसाज़ लगता है,
तुम उस को दोस्त समझते हो फिर भी ध्यान रहे|

मुझे ज़मीं की गहराईयों ने दाब लिया,
मैं चाहता था मेरे सर पे आसमान रहे|

अब अपने बीच मरासिम नहीं अदावत है,
मगर ये बात हमारे ही दर्मियान रहे|

मगर सितारों की फसलें उगा सका न कोई,
मेरी ज़मीन पे कितने ही आसमान रहे|

वो एक सवाल है फिर उस का सामना होगा,
दुआ करो कि सलामत मेरी ज़बान रहे|

Friday 20 December 2013

कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे

कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे
मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे

पुराने लोगों के दिल भी हैं ख़ुशबुओं की तरह
ज़रा किसी से मिले, एतबार करने लगे

नए ज़माने से आँखें नहीं मिला पाये
तो लोग गुज़रे ज़माने से प्यार करने लगे

कोई इशारा, दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तेरा इंतज़ार करने लगे

हमारी सादा -मिजाज़ी की दाद दे कि तुझे
बग़ैर परखे तेरा एतबार करने लगे.
-वसीम बरेलवी

आते-आते मेरा

आपको देख कर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया

आते-आते मेरा नाम-सा रह गया 
उस के होंठों पे कुछ काँपता रह गया

वो मेरे सामने ही गया और मैं 
रास्ते की तरह देखता रह गया

झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये 
और मैं था कि सच बोलता रह गया

आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे 
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया
-वसीम बरेलवी

मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है

तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते

मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है
ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते

जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते

ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछकर नहीं आते

बिसाते -इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता
यह और बात कि बचने के घर नहीं आते

'वसीम' जहन बनाते हैं तो वही अख़बार
जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते
-वसीम बरेलवी

लहू न हो तो

लहू न हो तो क़लम तरजुमाँ नहीं होता
हमारे दौर में आँसू ज़ुबाँ नहीं होता 

जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा 
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता 

ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तनहाई 
के मुझ से आज कोई बदगुमाँ नहीं होता

मैं उस को भूल गया हूँ ये कौन मानेगा 
किसी चराग़ के बस में धुआँ नहीं होता 

'वसीम' सदियों की आँखों से देखिये मुझ को 
वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता
-

वसीम बरेलवी

वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे

वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ ख़ुदा न करे
रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर
ये और बात मेरी ज़िन्दगी वफ़ा न करे
ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में
ख़ुदा किसी से किसी को मगर जुदा न करे
सुना है उसको मोहब्बत दुआयें देती है
जो दिल पे चोट तो खाये मगर गिला न करे
ज़माना देख चुका है परख चुका है उसे
"क़तील" जान से जाये पर इल्तजा न करे 
-क़तील शिफ़ाई

सारी बस्ती में ये जादू

सारी बस्ती में ये जादू नज़र आए मुझको
जो दरीचा भी खुले तू नज़र आए मुझको॥ 

सदियों का रस जगा मेरी रातों में आ गया
मैं एक हसीन शक्स की बातों में आ गया॥

जब तस्सवुर मेरा चुपके से तुझे छू आए
देर तक अपने बदन से तेरी खुशबू आए॥

गुस्ताख हवाओं की शिकायत न किया कर
उड़ जाए दुपट्टा तो खनक कर॥

रुम पूछो और में न बताउ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं॥

रात के सन्नाटे में हमने क्या-क्या धोके खाए है
अपना ही जब दिल धड़का तो हम समझे वो आए है॥
-क़तील शिफ़ाई

पहले तो अपने दिल की रज़ा जान जाइये

पहले तो अपने दिल की रज़ा जान जाइये
फिर जो निगाह-ए-यार कहे मान जाइये

पहले मिज़ाज-ए-राहगुज़र जान जाइये
फिर गर्द-ए-राह जो भी कहे मान जाइये

कुछ कह रही है आपके सीने की धड़कने
मेरी सुनें तो दिल का कहा मान जाइये

इक धूप सी जमी है निगाहों के आस पास
ये आप हैं तो आप पे क़ुर्बान जाइये

शायद हुज़ूर से कोई निस्बत हमें भी हो
आँखों में झाँक कर हमें पहचान जाइये
-  क़तील शिफ़ाई 

Tuesday 17 December 2013

बेखुदी ले गयी

बेखुदी ले गयी कहाँ हम को
देर से इंतज़ार है अपना

रोते फिरते हैं सारी-सारी रात
अब यही रोज़गार है अपना

दे के दिल हम जो हो गए मजबूर
इस में क्या इख्तियार है अपना

कुछ नही हम मिसाले-अनका लेक
शहर-शहर इश्तेहार है अपना

जिस को तुम आसमान कहते हो
सो दिलों का गुबार है अपना
-  मीर तक़ी 'मीर'

पेशानियों पे लिखे मुक़द्दर नहीं मिले

पेशानियों पे लिखे मुक़द्दर नहीं मिले|
दस्तार कहाँ मिलेंगे जहाँ सर नहीं मिले|

आवारगी को डूबते सूरज से रब्त है,
मग़्रिब के बाद हम भी तो घर पर नहीं मिले|

कल आईनों का जश्न हुआ था तमाम रात,
अन्धे तमाशबीनों को पत्थर नहीं मिले|

मैं चाहता था ख़ुद से मुलाक़ात हो मगर,
आईने मेरे क़द के बराबर नहीं मिले|

परदेस जा रहे हो तो सब देखते चलो,
मुमकिन है वापस आओ तो ये घर नहीं मिले|
-

 राहत इन्दौरी

पेहेन के आते हैं

जो मंसबो के पुजारी पहन के आते हैं।
कुलाह तौक से भारी पहन के आते है।

अमीर शहर तेरे जैसी क़ीमती पोशाक 
मेरी गली में भिखारी पहन के आते हैं।

यही अकीक़ थे शाहों के ताज की जीनत 
जो उँगलियों में मदारी पहन के आते हैं।

इबादतों की हिफाज़त भी उनके जिम्मे हैं।
जो मस्जिदों में सफारी पहन के आते हैं।
-

राहत इन्दौरी

लोग हर मोड़ पे

लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यों हैं
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं

मैं न जुगनू हूँ, दिया हूँ न कोई तारा हूँ
रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं

नींद से मेरा त'अल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं

मोड़ होता है जवानी का संभलने के लिए
और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यों हैं
-

राहत इन्दौरी

पुराने शहरों के मंज़र निकलने लगते हैं

पुराने शहरों के मंज़र निकलने लगते हैं 
ज़मीं जहाँ भी खुले घर निकलने लगते हैं 

मैं खोलता हूँ सदफ़ मोतियों के चक्कर में 
मगर यहाँ भी समन्दर निकलने लगते हैं 

हसीन लगते हैं जाड़ों में सुबह के मंज़र 
सितारे धूप पहनकर निकलने लगते हैं 

बुरे दिनों से बचाना मुझे मेरे मौला
क़रीबी दोस्त भी बचकर निकलने लगते हैं 

बुलन्दियों का तसव्वुर भी ख़ूब होता है 
कभी कभी तो मेरे पर निकलने लगते हैं 

अगर ख़्याल भी आए कि तुझको ख़त लिक्खूँ 
तो घोंसलों से कबूतर निकलने लगते हैं
-

राहत इन्दौरी